नई दिल्ली, 8 अगस्त (आईएएनएस)। पंडित रामकिंकर उपाध्याय एक ऐसे युगपुरुष थे, जिनकी वाणी में रामचरितमानस की चौपाइयां जब मंच से गूंजती थीं तो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर आध्यात्मिक और दार्शनिक चेतना के सागर में गोते लगाने लगते थे।
पंडित रामकिंकर उपाध्याय ने 50 वर्षों तक रामकथा के माध्यम से लाखों लोगों के हृदय को प्रभु श्रीराम की भक्ति और तुलसीदास जी के दर्शन से जोड़ा। उनकी कथा में न तो गीत-संगीत का सहारा था, न ही कोई प्रदर्शन, केवल उनकी विद्वत्ता और भक्ति से भरी वाणी ही श्रोताओं को राम की लीलाओं के रस में डुबो देती थी।
पंडित रामकिंकर के प्रवचनों का प्रभाव इतना व्यापक था कि उनके श्रोताओं में कई प्रमुख राजनेता भी शामिल थे।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनके बारे में कहा था कि राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान पंडित रामकिंकर ने अपनी कथाओं के माध्यम से वही जनजागरण का कार्य किया, जो तुलसीदास ने विदेशी आक्रांताओं के समय में किया था। उनकी कथाएं समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना जागृत करने का एक शक्तिशाली माध्यम बनीं, जिसने राम जन्मभूमि आंदोलन को आध्यात्मिक बल प्रदान किया।
पंडित रामकिंकर का जन्म 1 नवंबर 1924 को मध्य प्रदेश के जबलपुर में हुआ। वह बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे। उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि जटिल साहित्य और शास्त्रों को कम समय में ही आत्मसात कर लेते थे।
वे रामचरितमानस की एक-एक चौपाई पर सात से नौ दिन तक प्रवचन दे सकते थे। उनकी व्याख्या इतनी गहन और आध्यात्मिक होती थी कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। वे राम को ज्ञान, सीता को भक्ति, और लक्ष्मण को वैराग्य का प्रतीक बताकर रामायण को वेदों और लोक से जोड़ते थे।
मंच पर कथा सम्राट के रूप में प्रभावशाली होने के बावजूद, वे निजी जीवन में अत्यंत साधारण और विनम्र थे। कोलकाता, दिल्ली, रायपुर या लखनऊ, कहीं भी वे सामान्य ढंग से श्रोताओं से मिलते और उनकी समस्याओं का समाधान करते थे। उन्होंने अपने जीवन में लगभग 92 पुस्तकें लिखीं, जो मुख्य तौर पर रामचरितमानस और रामकथा पर आधारित थी।
उन्होंने 19 वर्ष की आयु से ही लिखना शुरू कर दिया था। उनकी रचनाएं आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने वाली थी। उनकी विद्वत्ता ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विद्वानों को भी प्रभावित किया। उन्हें 1999 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
एक बार मंच से उन्होंने कहा था कि झंझट न करना चाहिए, न उसमें पड़ना चाहिए। लेकिन, यदि भजन छूट जाए और झंझट में फंस जाएं, तो बेहतर है कि भजन की झंझट बनी रहे, क्योंकि तब झंझट भी भजन बन जाएगी।
रामकिंकर उपाध्याय का निधन 9 अगस्त, 2002 को हुआ। 78 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पंचभौतिक देह का त्याग किया, लेकिन उनकी कथाएं और लेखन आज भी जनमानस में जीवित हैं।
--आईएएनएस
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