जज्बातों का समंदर थीं सुधा शिवपुरी, एकता कपूर ने 'वॉकिंग इमोशन' का दिया था टैग

जज्बातों का समंदर थीं सुधा शिवपुरी, एकता कपूर ने 'वॉकिंग इमोशन' का दिया था टैग

मुंबई, 13 जुलाई (आईएएनएस)। टीवी और फिल्मों की दुनिया में बुजुर्ग महिलाओं के किरदार अक्सर सीमित और रूढ़िवादी होते थे। पहले बुजुर्ग किरदारों को ज्यादातर सिर्फ सपोर्टिंग रोल के लिए जाना जाता था और उनका अभिनय भी ज्यादा रंगीन या जीवंत नहीं होता था। लेकिन जब सुधा शिवपुरी ने टीवी की दुनिया में कदम रखा, तो उन्होंने इस सोच को पूरी तरह बदल दिया। सुधा ने बुजुर्ग महिला का रोल निभाते हुए उसे एक नया आयाम दिया। उनकी अदाकारी में ममता, समझदारी और जीवन के अनुभवों की जो झलक थी, वह हर दर्शक के दिल को छू जाती थी। 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में 'बा' का किरदार उनका इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग उन्हें असल जिंदगी में भी 'बा' ही कहकर पुकारने लगे। वहीं एकता कपूर ने उन्हें एक खास टैग भी दिया।

सुधा शिवपुरी का जन्म 14 जुलाई 1937 को मध्यप्रदेश के इंदौर में हुआ था। उनका बचपन आम बच्चों जैसा बिल्कुल नहीं था। जब वह आठ साल की थीं, तब उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता के निधन ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया। मां की तबीयत खराब रहने लगी और घर की सारी जिम्मेदारी सुधा के कंधों पर आ गई। स्कूल की पढ़ाई चल रही थी, लेकिन हालात ऐसे थे कि उन्हें कमाई के बारे में भी सोचना पड़ रहा था। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, जालंधर में नाटकों में आवाज देना शुरू किया, ताकि घर खर्च चल सके।

इस दौरान उनकी मुलाकात ओम शिवपुरी से हुई। सुधा और ओम शिवपुरी एक रेडियो शो के दौरान मिले थे। दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदल गई। ओम ने सुधा की बीए की पढ़ाई पूरी करने में मदद की। फिर दोनों ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) से थिएटर की पढ़ाई की और वहां से उनकी जिंदगी को एक नई दिशा मिल गई।

साल 1968 में सुधा ने ओम शिवपुरी से शादी कर ली। इसके बाद दोनों ने मिलकर दिल्ली में एक थिएटर ग्रुप 'दिशांतर' की शुरुआत की। इस ग्रुप ने 'तुगलक', 'आधे अधूरे', और 'खामोश: अदालत जारी है' जैसे शानदार नाटक किए। इन सभी नाटकों का निर्देशन ओम शिवपुरी ने किया, वहीं सुधा ने लीड रोल निभाया।

इस बीच पति ओम शिवपुरी को मुंबई से अभिनय का ऑफर मिला और दोनों मुंबई शिफ्ट हो गए। 70-80 के दौर में ओम शिवपुरी बॉलीवुड में कई किरदार निभाते दिखे। कैरेक्टर आर्टिस्ट के तौर पर जगह पक्की की। खलनायकी भी लोगों को पसंद आई। वहीं, सुधा ने 1977 में अपना फिल्मी सफर शुरू किया। उन्होंने बासु चटर्जी की फिल्म 'स्वामी' के जरिए बॉलीवुड में डेब्यू किया। इसके बाद उन्होंने 'इंसाफ का तराजू', 'हमारी बहू अलका', 'विधाता', 'माया मेमसाब', 'सावन को आने दो', 'सुन मेरी लैला', 'बर्निंग ट्रेन', और 'पिंजर' जैसी फिल्मों में काम किया। लेकिन फिल्मों में उन्हें अक्सर छोटे या साइड रोल मिलते थे, जिससे वह ज्यादा खुश नहीं थीं।

इसके बाद उन्होंने टीवी की ओर रुख किया, और यहीं से उन्हें असली पहचान मिली।

साल 2000 में 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' नाम का एक टीवी शो शुरू हुआ, जिसमें सुधा ने 'बा' का किरदार निभाया। इस किरदार ने उन्हें हर घर में 'बा' के नाम से मशहूर कर दिया। 'बा' के किरदार में वह सख्त भी दिखाई देती थीं और दुलार करने वाली मां भी। उनकी सबसे खास बात उनकी डायलॉग डिलीवरी और एक्सप्रेशन थे। जब वह किसी भी किरदार को निभातीं, तो ऐसा लगता जैसे यह सब असल जिंदगी में हो रहा हो। उनके अभिनय से प्रभावित टीवी की मशहूर निर्माता एकता कपूर ने एक इंटरव्यू में उन्हें प्यार से 'वॉकिंग इमोशन' का टैग दिया था। 'वॉकिंग इमोशन' का मतलब 'चलते-फिरते जज्बात' होता है। एकता के शो के लिए सुधा शिवपुरी जज्बातों का समंदर थीं, जो बिना बोले ही दर्शकों के दिलों में जगह बना लेती थीं।

'बा' के किरदार में उनकी सादगी, ममता, कभी-कभी सख्ती और समझदारी ऐसे भाव थे जो हर दर्शक के लिए आम जिंदगी जैसा एहसास कराते थे। इस किरदार से उन्होंने वह लोकप्रियता हासिल की जो फिल्मों में उन्हें कभी नहीं मिली थी। इसके बाद सुधा ने 'शीशे का घर', 'कसम से', 'संतोषी मां', और 'किस देश में है मेरा दिल' जैसे टीवी सीरियल में भी काम किया। लेकिन 'बा' का किरदार इतना मजबूत था कि सुधा शिवपुरी हमेशा के लिए उसी नाम से याद की जाने लगीं।

साल 2014 में सुधा शिवपुरी को दिल का दौरा पड़ा, और तब से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। 20 मई 2015 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 77 साल की उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली।

--आईएएनएस

पीके/केआर