विश्व उर्दू दिवस: हिंदी की माटी पर भाषा का 'उर्दू' वाला श्रृंगार, आखिर आज की युवा पीढ़ी को क्यों पसंद आ रहा? जानिए मशहूर लेखकों की राय

विश्व उर्दू दिवस: हिंदी की माटी पर भाषा का 'उर्दू' वाला श्रृंगार, आखिर आज की युवा पीढ़ी को क्यों पसंद आ रहा? जानिए मशहूर लेखकों की राय

नई दिल्ली, 8 नवंबर (आईएएनएस)। भाषा कोई भी हो उसकी समृद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि वह भौगोलिक दृष्टि से कितने परिवेश तक सहज और सरल तरीके से प्रभाव छोड़ रही है। यही वजह है कि हिंदी और उर्दू जैसी भाषाएं अपनी सहजता और सरलता के साथ दुनिया के हर भौगोलिक क्षेत्र तक अपनी पहुंच बनाने में कामयाब रही हैं।

आपको उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इकबाल तो याद होंगे ही, जिन्होंने 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा' लिखा था। उनकी कलम की ताकत ने उर्दू को दुनिया के पटल पर जीवंत कर दिया। एक भाषा के तौर पर ही नहीं बल्कि संवाद और साहित्य के लिए सहज और सरल समावेशन के लिए भी। ऐसे में हर साल 9 नवंबर को पूरी दुनिया विश्व उर्दू दिवस मनाती है। यह दिन उसी मशहूर शायर अल्लामा मुहम्मद इकबाल की याद में मनाया जाता है।

ऐसे में आज जब दुनिया उर्दू दिवस मनाती है, तो हिंदी भाषा में साहित्य सृजन करने वाले भी इस जश्न का हिस्सा होते हैं। उसकी सबसे बड़ी वजह है उर्दू का सहजता के साथ हिंदी के साथ मिल जाना। उर्दू आज केवल एक जुबान नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य की रूह है। यही वजह है कि आज हिंदी के कई जाने-माने लेखक उर्दू को सिर्फ पड़ोसी देश की भाषा नहीं, बल्कि अपनी तहज़ीब को बयां करने का तरीका और अपनी भाषा को समृद्धि देने वाला हिस्सा मानते हैं।

इसको लेकर आईएएनएस की तरफ से भी एक प्रयास किया गया कि इस उर्दू दिवस पर खानापूर्ति के लिए केवल उर्दू के साहित्यकार और शायरों से बात कर भाषा की समृद्धि को कम करने के बजाए हिंदी के साहित्यकारों और प्रकाशकों से उर्दू के बारे में राय ली जाए ताकि हम बता पाएं कि हिंदी के हर रंग और अंग में उर्दू कैसे रची-बसी है और इसने भाषाई तौर पर हिंदी में मिलकर उसे कैसे समृद्ध किया।

इसको लेकर प्रकाशक और लेखक शैलेश भारतवासी से भी उनकी राय आईएएनएस ने मांगी। ऐसे में उनका मानना है कि हिंदी साहित्य में उर्दू की मौजूदगी हमेशा से रही है और वह बहुत अहम है। वह कहते हैं कि हिंदी को उर्दू से अलग कर पाना बहुत मुश्किल है। हमारी आम बोलचाल की भाषा में ही इतने उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल होता है कि शायद हमें खुद इसका एहसास नहीं होता। हालांकि, वह यह भी मानते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है कि उर्दू की वजह से हिंदी साहित्य में प्रोग्रेसिव या रोमांटिक एलिमेंट का संतुलन बेहतर हुआ है।

शैलेश भारतवासी कहते हैं कि हिंदी सभी भाषाओं का स्वागत करती है, इसलिए उर्दू का इसमें साथ होना स्वाभाविक है। दोनों की जड़ें एक जैसी हैं, इसलिए इन्हें अलग करना बहुत मुश्किल है।

शैलेश मानते हैं कि हिंदी और उर्दू दोनों में सहजता और मिठास समान है। दोनों एक-दूसरे को पूरा करती हैं। उर्दू साहित्य को भले आज उतना संस्थागत बढ़ावा नहीं मिला, लेकिन वह लोगों की जुबान और दिलों में जिंदा है। हिंदी और उर्दू को लेकर जारी भाषा विवाद पर बोलते हुए शैलेश ने कहा कि हिंदी और उर्दू के बीच कोई फर्क नहीं है। जो भी साहित्य पढ़ता है, वो जानता है कि दोनों की जड़ें एक हैं और इन दोनों का एक साथ रहना जरूरी है।

वहीं, आईएएनएस से उर्दू भाषा को लेकर हिंदी में प्रकाशित 'जनता स्टोर' उपन्यास के लेखक नवीन चौधरी ने कहा कि हिंदी साहित्य में उर्दू की भूमिका बहुत गहरी है। जब उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल होता है, तो भाषा में एक मिठास और नजाकत घुल जाती है।

उनके अनुसार, उर्दू ने हिंदी को अभिव्यक्ति की नई ऊंचाइयां दी है। उर्दू की वजह से हिंदी साहित्य में गहराई आई है, खासकर रोमांटिकता और भावनात्मकता में एक संतुलन आया है।

नवीन आगे कहते हैं कि उर्दू का असर सिर्फ किताबों या कविताओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि फिल्मों, गीतों और टेलीविजन तक में फैला। आज हम जो संवाद सुनते हैं या गाने गुनगुनाते हैं, उनमें उर्दू की झलक साफ दिखाई देती है। आज की पीढ़ी को शायद पता भी नहीं कि जो शब्द वो हिंदी का समझ कर इस्तेमाल करते हैं, उनमें से कई शब्द उर्दू के हैं और सहजता और सरलता की वजह से उनका इस्तेमाल किया जाता है।

नवीन कहते हैं कि आज जब कई शुद्ध हिंदी शब्द गायब हो चुके हैं, तब उर्दू शब्दों ने उस खाली जगह को बड़ी खूबसूरती से भर दिया है। इसलिए हिंदी साहित्य में उर्दू का होना जरूरी है, क्योंकि वही इसे खूबसूरती और गहराई देती है।

वहीं, नई वाली हिंदी को समृद्ध करने वाले कवि और लेखक सर्वेश सिंह 'सहर' के मुताबिक, आज का युवा वर्ग भी उर्दू की ओर खिंचता चला जा रहा है। आज के दौर में जो नई रचनाएं सामने आ रही हैं, उनमें उर्दू के शब्दों का प्रयोग आम हो गया है। इससे लेखन में एक नई रचनात्मकता आती है और भावनाओं की अभिव्यक्ति को और प्रभावी बनाती है।

'सहर' कहते हैं कि उर्दू की वजह से हिंदी साहित्य में प्रोग्रेसिवनेस और रोमांटिक एलिमेंट का संतुलन बेहतर हुआ है। कविताएं और शायरियां तो उर्दू शब्दों के बिना अधूरी लगती हैं। दोनों की लिपि अलग हो सकती है, लेकिन भाषा का दिल एक है।

'सहर' आगे कहते हैं कि मैं ये नहीं कहूंगा कि उर्दू के बिना हिंदी साहित्य अधूरा है, लेकिन इतना जरूर है कि अगर उर्दू न हो तो हिंदी में वह नजाकत और वह रूहानियत नहीं आ पाती। उनका मानना है कि असली समस्या साहित्य में नहीं, राजनीति में है। जिन लोगों को दोनों भाषाओं का ज्ञान है, उनके दिल में एक-दूसरे के लिए केवल प्रेम है, द्वेष नहीं। जो भाषाओं को बांटना चाहते हैं, वह राजनीति करते हैं। साहित्य का काम जोड़ना है, लोगों के बीच भाव और भाषा का विभेद करके अलग करना नहीं।

--आईएएनएस

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