साहेबगंज विधानसभा सीट: अलग-अलग पार्टी को आजमाने का रहा है इतिहास, क्या भाजपा का खुलेगा खाता?

साहेबगंज विधानसभा सीट: अलग-अलग पार्टी को आजमाने का रहा है इतिहास, क्या भाजपा का खुलेगा खाता?

पटना, 28 अक्टूबर (आईएएनएस)। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की साहेबगंज विधानसभा सीट राज्य की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक सीटों में से एक मानी जाती है। बाया नदी के किनारे बसा यह इलाका उत्तर में पूर्वी चंपारण जिले के मेहसी और कल्याणपुर व दक्षिण में गोपालगंज जिले के बैकुंठपुर से घिरा हुआ है।

यह सीट वैशाली लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है और इसमें साहेबगंज प्रखंड के साथ-साथ पारू ब्लॉक की 20 ग्राम पंचायतें शामिल हैं, जिनमें अनादपुर खरौनी, बहदीनपुर, बैजलपुर, चक्की सुहागपुर, चांदकेवारी, डेवरिया (पूर्व एवं पश्चिम), धरफरी, फतेहाबाद, ग्यासपुर, जफरपुर, जयमल डुमरी, कटारू, खुटहीं, मोहब्बतपुर, मोहजम्मा, नेकनामपुर, पांडेह, उस्ती और जालंधर बैठा टोला बिशुनपुर सरैया शामिल हैं।

साहेबगंज विधानसभा क्षेत्र की स्थापना 1951 में हुई थी। पहली बार 1952 में चुनाव हुए, लेकिन 1957 में यह क्षेत्र चुनावी नक्शे से हटा दिया गया। बाद में 1962 में इसे फिर से बहाल किया गया। तब से अब तक यहां 17 बार चुनाव हो चुके हैं, जिनमें एक उपचुनाव (1982) भी शामिल है।

शुरुआती दशकों में यहां कांग्रेस पार्टी का दबदबा रहा, जिसने कुल 7 बार जीत दर्ज की। कांग्रेस की अंतिम जीत 1985 में हुई। इसके बाद जनता दल, जदयू और राजद ने दो-दो बार यह सीट जीती। वहीं, भाकपा, लोक जनशक्ति पार्टी, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और एक निर्दलीय उम्मीदवार ने भी एक-एक बार जीत हासिल की।

दिलचस्प यह है कि साहेबगंज की जनता ने पिछले दो दशकों में बार-बार बदलाव को तवज्जो दी है। 2005 और 2010 के चुनावों में जदयू के राजू कुमार सिंह विजयी रहे। 2015 में जनता ने राजद के रामविचार राय को मौका दिया। 2020 में वीआईपी उम्मीदवार के रूप में राजू कुमार सिंह ने फिर से जीत हासिल की, जिन्होंने राजद के रामविचार राय को हराया।

बाद में राजू कुमार सिंह भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा से राजू कुमार सिंह फिर से चुनाव मैदान में हैं। राजद ने पृथ्वी नाथ राय को उम्मीदवार बनाया है। वहीं, जन सुराज पार्टी ने ठाकुर हरि किशोर सिंह को टिकट दिया है।

इस क्षेत्र में राजपूत, यादव, मुस्लिम और भूमिहार मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक है, जो चुनाव परिणामों पर सीधा असर डालते हैं। इसके अलावा वैश्य, निषाद और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के मतदाता भी कई बार निर्णायक साबित हुए हैं।

--आईएएनएस

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