नई दिल्ली, 7 नवंबर (आईएएनएस)। हवा में एक उदास सिसकी घुली हुई है, जैसे कोई अधूरी गजल रुक-रुक कर सांस ले रही हो। अपनी नज्मों और नगमों से जख्मों को फूलों में बदलने वाले शायर जौन एलिया की 8 नवंबर को पुण्यतिथि है, उनको गुजरे कई बरस हो गए। हालांकि, अपनी शायरी के साथ वह अमर हैं और उसी शायरी में झलकता था, उनका जन्मभूमि अमरोहा के प्रति प्रेम और लगाव।
सैयद जौन असगर अब्बास जौन एलिया का नाम शायरी की दुनिया में हमेशा अमर रहेगा। 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा की मिट्टी में जन्मे इस शायर ने 8 नवंबर 2002 को कराची में अंतिम सांस ली थी। लेकिन, उनकी शायरी आज भी जिंदा है, सांस ले रही है, जौन एलिया का सफर एक ऐसी किताब है, जिसका हर एक पन्ना दर्द से भरा था और खुबसूरत शब्दों के साथ कागज पर चमकता था।
वह भले ही विभाजन की त्रासदी में परदेस के हो गए थे, अक्सर मंच पर खुद को अमरोहा का शायर ही कहा करते थे। अपनी शायरी में अक्सर मिट्टी, पुश्तैनी घर और पास बहने वाली बान नदी का भी जिक्र करते थे।
कोरे पन्ने पर बान नदी की याद के दर्द को उन्होंने "इस समंदर पे तिसनाकाम हूं मैं, बान तुम अब भी बह रही हो क्या" लिखकर जताया था।
जौन, भाई-बहनों में सबसे छोटे थे और बचपन से ही लेखनी में कमाल थे। आठ साल की उम्र में उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था, लेकिन दुनिया को दिखाया बढ़ती उम्र की दहलीज पर। जौन का मन किताबों के जंगल में भटकता। उन्होंने इतिहास, दर्शन, धर्म को मन लगाकर पढ़ा।
साल 1990 में आया 'शायद', पहली किताब, जिसके छपते ही तहलका मच गया। साठ साल की उम्र में आई पहली किताब को काफी प्यार मिला। उनकी शायरी पर नजर डालें तो? वो दर्द का सैलाब है, जो प्रेम के नाम पर बहता है। अनकही मोहब्बतें, वजूद का संकट, जिंदगी की नश्वरता, एलिया का पसंदीदा सब्जेक्ट रहे।
उनकी शायरी में क्लासिकल शब्दावली थी, लेकिन नए विषय होते थे। शायरी में मीर तकी मीर की उदासी का स्पर्श था तो भावनाओं का समंदर भी। आर्थिक तंगी, बीमारी सबने उन्हें तोड़ा। फिर भी उन्होंने हार न मानी।
पाकिस्तान सरकार ने साहित्य में उत्कृष्टता का पुरस्कार दिया। विश्वविद्यालयों में उनकी कविताएं पढ़ी गईं, थीसिस लिखी गईं। जौन एलिया का जीवन-दर्शन किसी दार्शनिक से कम नहीं। इसी कारण उन्होंने लिखा था, ''जिंदगी एक फन है लम्हों को, अपने अंदाज से गंवाने का।''
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