12 वर्ष की उम्र, पिता का 16 मिमी कैमरा, जब श्याम बेनेगल ने छोटी-सी उम्र में पर्दे पर फिल्माई थी कहानी

12 वर्ष की उम्र, पिता का 16 मिमी कैमरा, जब श्याम बेनेगल ने छोटी-सी उम्र में पर्दे पर फिल्माई थी कहानी

नई दिल्ली, 13 दिसंबर (आईएएनएस)। श्याम बेनेगल के बिना शायद भारतीय फिल्मों के इतिहास की बात अधूरी होगी। करीबी उन्हें श्याम बाबू बुलाया करते थे। एक ऐसे फिल्ममेकर जिन्होंने परंपराओं को चुनौती दी, चाहे वह अंकुर में जातिगत समीकरणों की बात हो, मंथन में डेयरी कोऑपरेटिव आंदोलन की, या भूमिका में महिलाओं की भावनात्मक जटिलताओं की, बेनेगल की फिल्में बिना किसी लाग-लपेट के सच्ची और प्रासंगिक रहीं। श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों से भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी, उसे सामाजिक चेतना से जोड़ा और कई प्रतिभाओं को मंच प्रदान किया।

14 दिसंबर 1934 को हैदराबाद के ट्रिमुलघेरी (वर्तमान में तिरुमलागिरी) में जन्मे श्याम बेनेगल का करियर छह दशकों से अधिक लंबा रहा, जिसके दौरान उन्होंने भारतीय सिनेमा में अपनी एक अलग पहचान बनाई। बेनेगल की फिल्मोग्राफी में समाज और इतिहास के साथ उनका गहरा जुड़ाव झलकता था।

श्याम बेनेगल का फिल्मों के प्रति प्रेम बचपन से ही शुरू हो गया था। फिल्मों के प्रति उनका जुनून बेतहाशा था। समाचार लेखों में यह उल्लेख मिलता है कि जब श्याम बेनेगल के पास फिल्म देखने के लिए पैसे नहीं होते थे, तो वे अपने स्थानीय सिनेमाघर के प्रोजेक्शनिस्ट से दोस्ती कर लेते थे और उसकी खिड़की से फिल्में देखते थे। कभी-कभी वे और उनका दोस्त दरवाजा थोड़ा सा खोल देते थे ताकि वे फिल्म देख सकें। यह आरामदायक तो नहीं था, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे टिमटिमाती परछाइयां उन्हें मंत्रमुग्ध कर देती थीं।

जब बेनेगल बड़े हुए, तो उन्हें जल्द ही एहसास हो गया कि वे अपनी मनचाही फिल्में नहीं बना सकते, इसलिए उन्होंने तब तक इंतजार किया जब तक कि उनके लिए नए रास्ते न खुल जाएं। और इस प्रक्रिया में, उन्होंने भारतीय सिनेमा को मौलिक रूप से बदल दिया। बेनेगल को फिल्म निर्माण से बेहद लगाव था। उनका बचपन सिकंदराबाद के एक छावनी क्षेत्र ट्रिमुलघेरी में बीता। यहीं पर उन्होंने फिल्म निर्माता बनने का निश्चय किया।

उन्होंने फिल्मी कला को एक बेहद अप्रत्याशित तरीके से सीखा। बारह साल की आयु में उन्होंने अपने पिता के 16 मिमी साइलेंट पायलार्ड बोलेक्स कैमरे का उपयोग करके अपनी ही दुनिया गढ़ना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने चचेरे भाइयों और विस्तारित परिवार के सदस्यों को लेकर एक फिल्म बनाई जिसमें एक छोटा लड़का खो जाता है और पूरा परिवार उसकी तलाश में निकल पड़ता है। इस प्रक्रिया के दौरान उन्होंने ट्रिक सिनेमैटोग्राफी का जादू खोजा, जिससे रिवर्स मोशन बनाना और लोगों को पानी से बाहर छलांग लगाते हुए दिखाना संभव हुआ।

उन्हें फिल्में बेहद प्रभावशाली लगीं, एक ऐसा माध्यम जो किसी को एक अलग ही दुनिया में ले जा सकता है।

उन्हें व्यावसायिक सिनेमा में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि यह या तो समझौता था या फिर बेमतलब मनोरंजन के लिए बनाई गई कोई हल्की-फुल्की चीज, जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं था। इसके बजाय, वे मुंबई चले गए और राष्ट्रीय विज्ञापन एजेंसी में शामिल हो गए। उन्होंने न केवल सैकड़ों विज्ञापन फिल्में बनाईं, बल्कि उन्हें असम के जोरहाट से पूर्वोत्तर के सभी इलाकों में सड़क मार्ग से ले जाने का काम भी सौंपा गया। विज्ञापन वितरण नेटवर्क की उनकी जानकारी तब काम आई जब उन्हें अपनी पहली फिल्म के लिए पारंपरिक फिल्म वितरण नेटवर्क को दरकिनार करना पड़ा।

विज्ञापन फिल्मों के लघु निर्माण के अपने अनुभव से बेनेगल ने सीखा कि कैसे कम से कम फ्रेम में प्रभावी ढंग से जानकारी को समाहित किया जाए, साथ ही दर्शकों की रुचि और जिज्ञासा को भी बनाए रखा जाए। उनकी पहली तीन फिल्मों की श्रृंखला इसी सरल, सटीक और प्रभावी दृष्टिकोण से परिपूर्ण है।

बेनेगल की पहली फिल्म भारतीय पैरेलल सिनेमा में एक मील का पत्थर साबित हुई। 'अंकुर' फिल्म ग्रामीण भारत में जाति और लिंग असमानता का एक मार्मिक चित्रण थी, जो एक जमींदार और एक दलित महिला के नाजायज रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती रही। इसी फिल्म से शबाना आजमी ने डेब्यू किया, जिनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस का नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिला।

1970 के दशक और 1980 के दशक की शुरुआत में न्यू इंडिया सिनेमा को जो सफलता मिली, उसका श्रेय काफी हद तक श्याम बेनेगल की चार फिल्मों को दिया जा सकता है, जिसमें अंकुर के अलावा निशांत (1975), मंथन (1976) और भूमिका (1977) शामिल हैं। इसके बाद श्याम बेनेगल ने कलयुग (1981), आरोहण (1982), मंडी (1983) और 'त्रिकाल' (1985) जैसी फिल्में बनाईं।

शबाना आजमी, स्मिता पाटिल और नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेता बेनेगल की 'खोज' हैं, जबकि अनंत नाग, साधु मेहर और कुलभूषण खरबंदा ने श्याम बेनेगल की फिल्मों में अपनी भूमिकाओं के कारण प्रसिद्धि हासिल की। उन्होंने विजय तेंदुलकर को पटकथा लेखक के रूप में और गोविंद निहलानी को छायाकार के रूप में पेश किया। बेनेगल की फिल्मों के साथ, संगीतकार के रूप में वनराज भाटिया की ख्याति ने नई ऊंचाइयों को छुआ।

अपने शानदार करियर के दौरान फिल्म निर्माता ने कई पुरस्कार अर्जित किए, जिनमें प्रतिष्ठित दादासाहेब फाल्के पुरस्कार और प्रभावशाली 18 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार शामिल हैं।

--आईएएनएस

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