संत नामदेवजी: भक्ति की मिसाल, जिन्होंने बाल्यकाल में ही भगवान को किया भावविभोर

संत नामदेवजी: भक्ति की मिसाल, जिन्होंने बाल्यकाल में ही भगवान को किया भावविभोर

नई दिल्ली, 2 जुलाई (आईएएनएस)। भक्ति मार्ग के महान संतों में एक नाम संत नामदेवजी का है, जिनका जन्म सन 1270 में महाराष्ट्र के सातारा जिले के नरसी बामनी गांव में कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन हुआ था। उस समय भक्ति आंदोलन धीरे-धीरे आकार ले रहा था और संत नामदेव जी ने अपने जीवन को उसी आंदोलन में समर्पित कर दिया। उनसे लगभग 130 वर्ष बाद जन्मे संत कबीर को आध्यात्मिक रूप से उनका उत्तराधिकारी माना जाता है।

नामदेव जी के पिता दामाशेटी और माता गोणाई देवी भगवान विठ्ठल के परम भक्त थे। इस भक्ति की विरासत नामदेव को भी बाल्यकाल में ही मिल गई थी। कहते हैं, एक दिन जब उनके पिता घर पर नहीं थे, तो उनकी मां ने उन्हें दूध दिया और कहा कि वह इसे विठोबा भगवान को भोग लगाएं। बालक नामदेव उस दूध को लेकर सीधे मंदिर पहुंचे और भगवान विठोबा की मूर्ति के सामने रखकर मासूमियत से बोले- “लो, इसे पी लो।”

मंदिर में उपस्थित लोगों ने उन्हें समझाया कि मूर्ति दूध नहीं पी सकती, लेकिन पांच साल का वह बालक भाव के स्तर पर इतना गहराई से डूबा था कि वह वहीं बैठकर रोने लगा। वह बार-बार भगवान से कहने लगा कि यदि आपने दूध नहीं पिया तो मैं यहीं प्राण त्याग दूंगा। उस निश्छल भक्ति से भावविभोर होकर भगवान विठोबा साक्षात प्रकट हुए और दूध ग्रहण किया। साथ ही बालक नामदेव को भी पिलाया।

यही क्षण उनके जीवन की दिशा तय करता है। इसके बाद से वे विठोबा के नाम में लीन हो गए और दिन-रात ‘विठ्ठल-विठ्ठल’ की रट लगाते रहे।

संत नामदेव के आध्यात्मिक जीवन में संत ज्ञानेश्वर उनके गुरु बने, जिन्होंने उन्हें ब्रह्मविद्या से परिचित कराया। ज्ञानेश्वर ने जहां महाराष्ट्र में आध्यात्मिक ज्ञान को जन-सुलभ बनाया, वहीं संत नामदेव ने ‘हरिनाम’ के प्रचार का कार्य उत्तर भारत तक फैलाया। वे महाराष्ट्र से पंजाब तक यात्रा करते हुए भक्ति और भजन के माध्यम से लोगों को ईश्वर से जोड़ते गए।

भक्ति के इस महासागर में संत नामदेव का स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि कबीरदास और सूरदास का है। उन्होंने जात-पात, मूर्ति पूजा और कर्मकांड जैसे विषयों पर निर्भीक होकर विचार रखे। उनके विचारों में सामाजिक समानता, निष्कलंक भक्ति और प्रेम ही मूल आधार थे। इसलिए उन्हें कई विद्वानों ने कबीर का आध्यात्मिक अग्रज कहा है।

नामदेव जी ने मराठी के साथ-साथ पंजाबी में भी रचनाएं कीं। उनकी भाषा में सहजता और भावों में गहराई है। उनकी बाणी आज भी पंजाब के लोगों में लोकप्रिय है। उनकी भक्ति से प्रभावित होकर श्री गुरु अरजन देव जी ने संत नामदेव की रचनाओं को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल किया। इसमें उनके 61 पद, 3 श्लोक और 18 रागों में संकलन किया गया है। उनके भक्ति-रस से ओतप्रोत भाव आज भी मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

उनके जीवन से जुड़ा एक प्रसंग भक्ति की गहराई को और स्पष्ट करता है। एक बार जब वे भोजन कर रहे थे, तब एक कुत्ता उनकी रोटी उठाकर भाग गया। यह देखकर नामदेव जी घी का कटोरा लेकर उसके पीछे दौड़े और बोले, “हे प्रभु, सूखी रोटी मत खाओ, साथ में घी भी ले लो।” यह प्रसंग दर्शाता है कि वे हर प्राणी में ईश्वर का रूप देखते थे।

उनकी वाणी और जीवन आज भी भक्ति, करुणा और समर्पण की जीवंत मिसाल हैं। ‘मुखबानी’ जैसे ग्रंथों में उनकी कई रचनाएं संग्रहित हैं जो उनकी भक्ति की अमर धरोहर हैं।

संत नामदेव जी का जीवन सच्चे भक्त की परिभाषा है, जहां निष्कलंक प्रेम, निस्वार्थ सेवा और परमात्मा के प्रति समर्पण ही सबसे बड़ा धर्म है।

--आईएएनएस

डीएससी/एबीएम