नई दिल्ली, 9 दिसंबर (आईएएनएस)। पाकिस्तान की राजनीति में “देशद्रोह” एक ऐसा शब्द है जिसे जितनी बार बोला जाता है, उससे कहीं ज्यादा बार फुसफुसाकर इस्तेमाल किया जाता है। इमरान खान पर संभावित 'ट्रेजन' मुकदमे की चेतावनी राणा सनाउल्लाह ने खुले तौर पर दी है।
इमरान खान के बारे में कड़ी चेतावनी देते हुए कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ देशद्रोह का केस शुरू होने की संभावना से "इनकार नहीं किया जा सकता।"
स्थानीय मीडिया हाउस को दिए एक इंटरव्यू में, सनाउल्लाह ने कहा कि इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के डायरेक्टर जनरल ने हाल ही में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो मैसेज दिया, वह "साफ था।" उन्होंने पीटीआई नेताओं को चेतावनी दी कि वे इन बातों को हल्के में न लें, और आगाह किया कि ऐसा करने के "गंभीर नतीजे" हो सकते हैं।
सनाउल्लाह ने कहा कि इमरान खान के हालिया बयानों का लहजा और असलियत दिखाती है कि "हालात बहुत गंभीर हो गए हैं," और कहा कि "इमरान खान के खिलाफ देशद्रोह का केस चलाने का दरवाजा बंद नहीं हुआ है।"
सनाउल्लाह का बयान एक बड़े और पुराने खेल का संकेत सा है, जो पाकिस्तान की सत्ता, सैन्य प्रतिष्ठान और न्यायिक ढांचे के बीच दशकों से चलता आ रहा है। यह पहली बार नहीं है कि किसी पूर्व प्रधानमंत्री को देश-विरोधी कह कर घेरा जा रहा है; यह पैटर्न इतना नियमित है कि पाकिस्तान के इतिहास की हर सत्ता-परिवर्तन में इसकी गूंज सुनाई देती है।
इस बार मामला एक बयान जितना साधारण नहीं है। इमरान खान पहले से ही कई मामलों में जेल में हैं, उनकी पार्टी पीटीआई को चुनावी मैदान से काफी हद तक बाहर किया जा चुका है, और सेना की आलोचना का हर संकेत “रेड लाइन” माना जा रहा है। राणा सनाउल्लाह, जो वजीर ए आजम शहबाज शरीफ के सलाहकार हैं- का यह कहना कि इमरान “रेड लाइन क्रॉस कर चुके हैं” (मतलब लक्ष्मण रेखा पार कर चुके हैं) और उन पर देशद्रोह का केस चल सकता है, उन गहरे तनावों की ओर इंगित करता है जिन पर पाकिस्तान की जनता को खुलकर जानकारी नहीं दी जाती। सूत्रों के अनुसार सेना के भीतर भी एक धड़ा इमरान के सार्वजनिक आरोपों (विशेषकर “साइफर” मामले के बाद लगाए गए) को एक संगठित दुष्प्रचार अभियान मानता है। सवाल यह भी उठता है कि क्या यह चेतावनी महज राजनीतिक है, या इसके पीछे खुफिया तंत्र की रिपोर्टें और संस्थागत दबाव भी मौजूद हैं?
इस पूरी कहानी की जड़ें पाकिस्तान के इतिहास में फैली हुई हैं। देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को “राजनीतिक साजिश” वाले एक मुकदमे में फांसी दी गई। जिसे आलोचक आज तक सेना और न्यायपालिका की गुप्त साझेदारी का परिणाम बताते हैं। बेनजीर भुट्टो के खिलाफ दायर “देश-विरोधी” मामलों को भी राजनीतिक इंजीनियरिंग कहा गया। हुसैन सुहरावर्दी को “एंटी-स्टेट” गतिविधियों में पकड़ा गया था, जबकि नवाज शरीफ पर 1999 के विमान प्रकरण में ऐसा ही लेबल लगाया गया था। लेकिन सबसे भारी अध्याय परवेज मुशर्रफ का है, जिन्हें संविधान निलंबित करने पर हाई-ट्रेजन का दोषी ठहराया गया—यानी पाकिस्तान में वास्तविक देशद्रोह पहली बार एक सैन्य शासक पर सिद्ध हुआ, न कि किसी राजनेता पर।
इमरान का मामला इन सभी से अलग इसलिए है कि उन पर आरोप न केवल संवैधानिक उल्लंघन का है, बल्कि एक ऐसे कथित “नरेटिव वॉरफेयर” का है जिसे संस्थाएं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सीधी चुनौती मानती हैं। साइफर दस्तावेज को राजनीतिक हथियार बनाना, सेना पर सार्वजनिक आरोप, विदेश नीति को चुनावी मुद्दा बनाना, ये बातें सरकार और सुरक्षा प्रतिष्ठान दोनों के लिए एक ऐसा संयोजन बनाती हैं जिसका मुकदमे में बदलना अब केवल कानूनी नहीं, बल्कि पूरी तरह राजनीतिक गणित का प्रश्न है।
जांच-पड़ताल यह भी दिखाती है कि पाकिस्तान में देशद्रोह का पैमाना बड़ा अटपटा रहा है। इसका उपयोग हमेशा किसी नेता द्वारा संविधान की बेअदबी से ज्यादा इस पर निर्भर रहा है कि सत्ता पर कब्जा किसका है और किसी बयान या कार्रवाई को “राज्य-विरोधी” सिद्ध करने में किसे लाभ पहुंच सकता है।
इमरान खान पर यह मुकदमा चलेगा या सिर्फ एक दबाव के हथियार की तरह काम करेगा—यह आने वाले समय में पता चलेगा। लेकिन यह निश्चित है कि पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास में हर बड़ी उथल-पुथल से पहले “देशद्रोह” का शब्द अक्सर हवा में तैरता है, और इमरान का मामला उसी अनलिखे नियम का नवीनतम संस्करण है।
--आईएएनएस
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