नई दिल्ली, 1 दिसंबर (आईएएनएस)। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि मजिस्ट्रेटों को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 156(3) के तहत पुलिस जांच के लिए निर्देश करते समय विवेक का प्रयोग करना चाहिए और यंत्रवत् निर्देश जारी नहीं करना चाहिए।
न्यायमूर्ति रजनीश भटनागर ने कहा कि प्रत्येक मामले की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पुलिस जांच का आदेश देने का निर्णय सोच-समझकर लिया जाना चाहिए।
सीआरपीसी की धारा 156(3) धारा 190 के तहत मजिस्ट्रेट को पुलिस जांच का निर्देश देने का अधिकार देती है।
अदालत एक ऐसे मामले की सुनवाई कर रही थी जिसमें एक व्यक्ति धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए अपने पड़ोसियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की मांग कर रहा था।
याचिकाकर्ता की याचिका के बावजूद, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायाधीश ने पुलिस जांच से इनकार करने के फैसले को बरकरार रखा।
न्यायमूर्ति भटनागर ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता के पास सीआरपीसी की धारा 200 के तहत पूछताछ के लिए आवश्यक तथ्य और सबूत हैं।
उन्होंने स्पष्ट किया कि एक मजिस्ट्रेट केवल इसलिए पुलिस जांच का आदेश देने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि शिकायत एक संज्ञेय अपराध के तत्वों को रेखांकित करती है। परिस्थितियों के आधार पर, मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता के लिए पुलिस सहायता के बिना आरोपों को साबित करना पर्याप्त मान सकता है।
ऐसे मामलों में, मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 200 के तहत शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत गवाहों की जांच करके आगे बढ़ सकता है।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि सीआरपीसी की धारा 482 या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत असाधारण क्षेत्राधिकार के प्रयोग की गारंटी देने के लिए कोई बाध्यकारी परिस्थितियाँ प्रस्तुत नहीं की गईं क्योंकि यह निचली अदालतों के निर्णयों की वैधता की पुष्टि करता है।
--आईएएनएस
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