मुंबई, 26 अक्टूबर (आईएएनएस)। असम के बरपेटा जिले में एक छोटी-सी जगह सोनितपुर है। 27 अक्टूबर 1978 को यहां जन्मी कल्पना पटवारी की आवाज में वह मिठास है जो भोजपुरी संगीत को नई पहचान देती है। उनके पिता बिपिन नाथ पटवारी लोक गायक थे। सिर्फ चार साल की उम्र में कल्पना उनके साथ स्टेज पर चढ़ीं और तब से संगीत उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया। शिक्षा में भी उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक किया और लखनऊ से शास्त्रीय संगीत में विशारद की डिग्री हासिल की।
उनका दिल हमेशा लोक संगीत में रहा। खड़ी बिरहा, छपरहिया, कजरी, सोहर और नौटंकी, इन विधाओं को उन्होंने न सिर्फ अपनाया, बल्कि इन्हें अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया। भोजपुरी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग की दुनिया में कल्पना पहली ऐसी गायिका हैं, जिन्होंने पारंपरिक खड़ी बिरहा को आधुनिक अंदाज में पेश किया।
कल्पना भिखारी ठाकुर को अपना गुरु मानती हैं। उनके गीतों में पूर्वी शैली का प्रभाव साफ झलकता है। भोजपुरी के अलावा उन्होंने असमिया, बंगाली, हिंदी, मराठी समेत 30 से अधिक भाषाओं में गाने और गीत गाए हैं।
बॉलीवुड के आइटम सॉन्ग से लेकर डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘बिदेसिया इन बॉम्बे’ तक, उनकी आवाज हर जगह अपनी छाप छोड़ती है। संगीत के साथ-साथ कल्पना ने सामाजिक और राजनीतिक मंचों पर भी कदम रखा। 2018 में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुईं और 2020 में असम गण परिषद का हिस्सा बनीं। लेकिन उनकी असली पहचान लोक संगीत की उस विरासत में है जो वे सहेज रही हैं।
एक गायक की आवाज कभी-कभी हजारों लोगों की भीड़ से निकलकर, समाज के सबसे खतरनाक कोनों तक पहुंच जाती है। क्या आपने कभी सुना है कि किसी कलाकार की लोकप्रियता ऐसी हो कि जंगल के डाकू भी उसके सम्मान में अपना रास्ता बदल दें?
असम की धरती से निकलकर भोजपुरी संगीत पर राज करने वाली कल्पना पटवारी के करियर की शुरुआत का ऐसा ही एक अविश्वसनीय किस्सा है, जो बिहार के उन बीहड़ों से जुड़ा है, जहां डर और दबंगई का बोलबाला था। यह कहानी सिर्फ संगीत की ताकत नहीं बताती, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कला का जादू हर सीमा, यहां तक कि कानून की सीमा को भी पार कर जाता है।
बात 2000 के दशक की शुरुआत की है, जब कल्पना पटवारी भोजपुरी फिल्म संगीत में एक उभरता नाम थीं। उनकी आवाज में वह ठेठ, मजेदार और जमीन से जुड़ी ताकत थी, जिसने उन्हें रातोंरात बिहार और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में सुपरस्टार बना दिया।
उन दिनों इन क्षेत्रों में लाइव स्टेज शो करना किसी रोमांचक अभियान से कम नहीं होता था। कल्पना पटवारी ने कई इंटरव्यू में बताया है कि उनके शुरुआती शो के दौरान अकसर गोलियां चलती थीं। लोग खुशी या जोश में हवा में फायरिंग कर देते थे। ऐसे खतरनाक माहौल के बीच भी उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनके गाने गांव-देहात से लेकर जंगल में छिपे डकैतों तक के कानों में पहुंचते थे।
एक बार कल्पना पटवारी ने बिहार के एक छोटे कस्बे में अपना शो खत्म किया और अगली सुबह की ट्रेन पकड़ने के लिए रात को बिना शोर-शराबे के सफर कर रही थीं। सुरक्षा कारणों से यह जरूरी था कि कोई न जाने कि वह यात्रा कर रही हैं।
ट्रेन चल रही थी, तभी अचानक डिब्बे में कुछ हलचल हुई। कुछ संदिग्ध और हष्ट-पुष्ट लोग कंपार्टमेंट की ओर बढ़े। जल्दी ही पता चला कि ये कोई आम यात्री नहीं, बल्कि उस इलाके के दुर्दांत डाकू थे। यह देखकर उनके साथी डर गए क्योंकि उस समय डाकुओं का खौफ पूरे इलाके में था।
लेकिन यहां कहानी ने एक अविश्वसनीय मोड़ लिया। जब डाकुओं को किसी तरह यह पता चला कि जिस साधारण सी यात्री गाड़ी में वे हैं, उसमें 'भोजपुरी क्वीन' कल्पना पटवारी सफर कर रही हैं, तो उनके हाव-भाव पूरी तरह बदल गए।
डर के माहौल के बीच डाकुओं ने बंदूकें नीचे रख दीं और कल्पना पटवारी के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उन्होंने किसी भी तरह की कोई दबंगई नहीं दिखाई, बल्कि बड़े सम्मान से उनसे एक फरमाइश कर डाली, उन्हें गाना गाने के लिए कहा।
कल्पना पटवारी उस क्षण हैरान रह गईं। जब उन्होंने विनम्रता से यह कहकर मना किया कि उन्हें अगले स्टेशन पर उतरना है और उनकी ट्रेन छूट जाएगी, तो डाकुओं के सरदार का जवाब सुनकर वह दंग रह गईं। उसने कहा, “आप निश्चिंत रहिए, गाना गाइए। हम आपके लिए ट्रेन रोक देंगे।”
इस घटना के बाद कल्पना पटवारी ने मन ही मन में सोचा, 'एक तरफ ये लोग कानून तोड़ते थे, लेकिन दूसरी तरफ वही लोग संगीत की इतनी इज्जत करते थे कि एक कलाकार के सम्मान में उन्होंने खुद को अनुशासित कर लिया।' इस अनुभव ने 'असम की बेटी' को सही मायने में 'भोजपुरी की रानी' बना दिया, जिनकी कला ने समाज के हर वर्ग के दिल में जगह बनाई।
--आईएएनएस
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