नई दिल्ली, 19 दिसंबर (आईएएनएस)। कल्पना कीजिए एक ऐसे कलाकार की, जिसकी उंगलियां लकड़ी की कठोरता में संगीत ढूंढ लेती थीं और जिसकी छेनी पत्थर के सीने में छिपे आवाज को दुनिया के सामने लाती थी। यह कहानी है धनराज भगत की। एक ऐसा शिल्पकार जिसने भारत-पाक विभाजन के जख्मों को कला का मरहम बनाया और आधुनिक भारतीय मूर्तिकला की नींव रखी।
धनराज भगत का जन्म 1917 में लाहौर की एक बेहद साधारण पृष्ठभूमि में हुआ था। 16 साल की उम्र में जब बच्चे भविष्य के सपने बुनते हैं, भगत एक कमर्शियल मूर्तिकार के यहां सांचे बनाने और पत्थर घिसने का काम कर रहे थे। लेकिन यही वह समय था जब उनकी कला की 'भट्टी' तैयार हो रही थी। मेयो स्कूल ऑफ आर्ट्स से शिक्षा पाकर वे वहीं शिक्षक बने, लेकिन 1947 की आंधी ने सब कुछ बदल दिया।
विभाजन के दौरान लाहौर से दिल्ली तक का सफर केवल भौगोलिक बदलाव नहीं था, बल्कि उनकी आत्मा का विस्थापन था। दिल्ली पहुंचते ही उनकी कला की कोमलता खुरदरेपन में बदल गई। उन्होंने लकड़ी की चिकनी सतहों को पॉलिश करना बंद कर दिया। अब उनकी मूर्तियों पर छेनी के गहरे निशान होते थे, मानो वे निशान उस हिंसा और विस्थापन के घाव हों जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा था।
अक्सर लोग धनराज भगत को सिर्फ एक मूर्तिकार के रूप में जानते हैं, लेकिन उनके भीतर एक मौन चित्रकार भी बसा था। उनके रेखाचित्र केवल मूर्तियों का ब्लूप्रिंट नहीं थे, बल्कि वे अपने आप में मुकम्मल कविताएं थीं। जीवन के अंतिम पड़ाव पर, जब वे व्हीलचेयर पर आ गए और भारी पत्थर या लकड़ी उठाना मुश्किल हो गया, तब उनकी कलम और स्याही ने उनका साथ निभाया। उनके रेखाचित्रों में ब्रह्मांडीय ऊर्जा और संगीत की वह लय दिखाई देती है, जो शायद किसी भी भौतिक माध्यम की मोहताज नहीं थी।
भगत ने कभी खुद को किसी एक दायरे में नहीं बांधा। उन्होंने मिट्टी से शुरुआत की, लेकिन लकड़ी उनकी सबसे प्रिय संगिनी बनी। 1950 के दशक तक आते-आते वे आधुनिकता के प्रयोगों में डूब गए।
उनकी 'मोनार्क' श्रृंखला में लकड़ी की प्राकृतिक बनावट और कीलों का उपयोग तांत्रिक और टोटेमिक कला का अद्भुत उदाहरण है।
उनके 'बांसुरी वादक' और 'सितार वादक' मूर्तियों को देखकर लगता है मानो धातु से संगीत की स्वर लहरियां फूट रही हों। 'कॉस्मिक मैन' जैसी मूर्तियों में उन्होंने भारी कंक्रीट को एक दार्शनिक विस्तार दिया।
उनकी कला की गहराई का एक दिलचस्प उदाहरण उनकी सात फीट ऊंची लकड़ी की मूर्ति है। दशकों तक कला समीक्षक और नीलामी घर इसे 'रावण' समझकर नीलाम करते रहे। लेकिन जब उनके पुराने रेखाचित्रों की गहराई से जांच हुई, तो पता चला कि यह 'देवी दुर्गा' की एक आधुनिक अमूर्त व्याख्या थी। यह भगत की शैली की ताकत थी, जहां रूप लुप्त हो जाते थे और केवल शक्ति और भावना शेष रहती थी।
दिल्ली में उन्होंने बीसी सान्याल जैसे दिग्गजों के साथ मिलकर 'दिल्ली शिल्पी चक्र' की शुरुआत की। यह कला को महलों से निकालकर आम लोगों तक पहुंचाने की एक क्रांतिकारी कोशिश थी।
1977 में पद्म श्री से सम्मानित भगत ने दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट में 30 वर्षों तक अध्यापन किया। उन्होंने मूर्तिकारों की एक ऐसी पौध तैयार की, जो आज भी भारतीय कला को सींच रही है। 1988 में जब उन्होंने आखिरी सांस ली, तो भारतीय कला जगत ने अपना सबसे 'जिद्दी' और 'प्रयोगात्मक' चितेरा खो दिया था।
--आईएएनएस
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