नई दिल्ली, 18 दिसंबर (आईएएनएस)। जिस दौर में पूरी दुनिया विकास की परिभाषा बड़े बांधों और कंक्रीट के हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग में खोज रही थी, ठीक उसी समय दिल्ली के 'गांधी शांति प्रतिष्ठान' के एक साधारण से कमरे में बैठा एक व्यक्ति उन पुरानी बावड़ियों और तालाबों की धूल झाड़ रहा था, जिन्हें आधुनिक भारत ने 'गड्ढा' समझकर भुला दिया था। खादी का कुर्ता, सौम्य मुस्कान और आंखों में सदियों पुराने ज्ञान की चमक, ये कोई और नहीं, बल्कि अनुपम मिश्र थे। एक ऐसे मनीषी, जिन्होंने कलम और कुदाल के बीच ऐसा रिश्ता जोड़ा कि भारत की सूखती नसों में फिर से जल की चेतना दौड़ने लगी।
अनुपम मिश्र का जन्म 1948 में महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था। उन्हें विरासत में पिता भवानी प्रसाद मिश्र की कविता जैसी तरलता और गांधीवादी नैतिकता मिली थी। उनके जीवन का एक दिलचस्प अध्याय 1970 के दशक की शुरुआत में मिलता है, जब वे चंबल के खूंखार डाकुओं के आत्मसमर्पण के लिए बनाई गई शांति समिति का हिस्सा बने। बंदूकों की भाषा समझने वाले बागियों के बीच बैठकर उन्होंने संवाद की जो शक्ति सीखी, वही आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी ताकत बनी। उन्होंने जाना कि समाधान तकनीकी नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं में छिपा होता है।
जब उत्तराखंड की वादियों में कुल्हाड़ियां गूंजने लगीं, तो अनुपम मिश्र वहां पत्रकार बनकर नहीं, बल्कि एक साथी बनकर पहुंचे। 1973 का वह 'चिपको आंदोलन' केवल पेड़ों को बचाने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि स्थानीय समुदायों के स्वाभिमान की पुकार थी। अनुपम मिश्र ने चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा के संघर्षों को दुनिया के सामने रखा।
उनकी पुस्तक 'चिपको आंदोलन' ने पहली बार यह सिद्ध किया कि पर्यावरण की रक्षा कोई एसी रूम में बैठकर करने वाली चर्चा नहीं, बल्कि मिट्टी से जुड़ा संघर्ष है।
वर्ष 1993 में एक ऐसी किताब आई जिसने भारत की जल-दृष्टि ही बदल दी। किताब का शीर्षक था 'आज भी खरे हैं तालाब'। इस किताब को लिखने के लिए अनुपम ने आठ साल तक देश के हजारों गांवों की धूल छानी। उन्होंने एसी कमरों वाले इंजीनियरों से नहीं, बल्कि उन 'गजधरों' (पारंपरिक मिस्त्रियों) से बात की, जो जानते थे कि जमीन की ढलान को कैसे पढ़ा जाता है।
उनको गुरु मानने वाले स्वतंत्र मिश्रा बताते हैं कि उन्होंने इस किताब में बताया कि 20वीं सदी की शुरुआत तक भारत में 12 लाख से अधिक तालाब थे। सबसे विशेष बात यह थी कि उन्होंने अपनी इस किताब को 'कॉपीराइट-मुक्त' रखा। उनका तर्क सीधा था कि जो ज्ञान समाज से मिला है, उस पर मेरा एकाधिकार कैसा? आज यह किताब 19 भाषाओं में मौजूद है और लाखों लोगों के लिए जल संचयन की धर्मग्रंथ बन चुकी है।
अनुपम मिश्र ने अपनी दूसरी चर्चित कृति 'राजस्थान की रजत बूंदें' में 'कुंई' बनाने की कला का वर्णन किया। मरुस्थल की वह सूखी रेत, जो ऊपर से तपती है, अपने भीतर 'रेजाणी पानी' (नमी) को सहेज कर रखती है। अनुपम ने उन चेलवांजी या गजधरों की वीरता को सलाम किया जो 60-70 फीट नीचे जाकर ऑक्सीजन की कमी के बावजूद 'चांदी जैसी बूंदों' को सहेजने के लिए कुईं खोदते थे।
कुंई राजस्थान में पाया जाने वाला एक खास तरह का छोटा कुआं होता है।
अनुपम मिश्र ने केवल गांवों की ही नहीं, बल्कि दिल्ली जैसे महानगरों की भी नब्ज पकड़ी। उन्होंने 'यमुना की दिल्ली' निबंध में चेतावनी दी थी कि हमने यमुना की 18 सहायक नदियों को गंदा नाला बना दिया और अरावली की उन पहाड़ियों को खोद डाला जो शहर का जलग्रहण क्षेत्र थीं। उनकी दृष्टि में यमुना को 'रिवरफ्रंट' के कंक्रीट में बांधना उसका गला घोंटने जैसा था। वे मानते थे कि प्रकृति से लड़कर विकास नहीं, विनाश आता है।
अनुपम मिश्र कभी किसी मंच पर चीखते-चिल्लाते नहीं थे। उनकी बातें उतनी ही शांत थीं जितना किसी पुराने तालाब का पानी। उन्होंने राजेंद्र सिंह (जल पुरुष) जैसे दर्जनों कार्यकर्ताओं को तराशा।
2016 में जब वे कैंसर से जूझ रहे थे, तब भी उनकी चिंता में देश की नदियां थीं। 19 दिसंबर 2016 को इस तपस्वी ने अंतिम सांस ली, लेकिन वे एक विचार छोड़ गए।
वे कहते थे, "हम तालाब नहीं बना रहे, हम तो सिर्फ उस समाज को याद कर रहे हैं जिसने तालाब बनाए थे।" आज जब जलवायु परिवर्तन की आहट तेज है, अनुपम मिश्र के विचार हमें रास्ता दिखाते हैं कि अगर मानवता को बचना है, तो उसे प्रकृति के साथ युद्ध बंद कर संवाद शुरू करना होगा।
--आईएएनएस
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