नई दिल्ली, 17 दिसंबर (आईएएनएस)। दिसंबर महीने की 18 तारीख, केवल कैलेंडर पर दर्ज एक दिन नहीं। यह विविधता और सह अस्तित्व को सम्मान देने वाली तिथि है। देश ही नहीं, पूरी दुनिया पहले के मुकाबले अधिक जुड़ी हुई है। हालांकि, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि असमानता की चुनौतियां आज भी जिंदा हैं। ऐसे समय में अंतरराष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस हमें याद दिलाता है कि सभ्यता की असली पहचान बहुमत की आवाज में नहीं, बल्कि उन आवाजों के सम्मान में है जो अक्सर भीड़ में दब जाती हैं, गुमनाम हो जाती हैं।
18 दिसंबर संयुक्त राष्ट्र की 1992 की उस घोषणा से जुड़ा है, जिसमें राष्ट्रीय, जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को औपचारिक रूप से मान्यता दी गई। यह घोषणा भले ही कानूनी रूप से बाध्यकारी न हो, पर इसने अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार विमर्श को विशेषकर अपनी भाषा बोलने, धर्म का पालन करने और अपनी संस्कृति को संरक्षित रखने के मूल अधिकारों पर दिशा दी। लोकतांत्रिक प्रणालियों के लिए यह एक संकेत था कि विकास का असली पैमाना केवल आर्थिक वृद्धि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गरिमा और समान अवसर है।
भारत इस विचार को अपने संविधान की बनावट में पहले ही स्थापित कर चुका था। समानता, धर्म की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक अधिकार और शिक्षा का अधिकार, ये सभी अनुच्छेद अल्पसंख्यकों सहित हर नागरिक की सुरक्षा करते हैं। यही कारण है कि भारत की पहचान केवल एक राष्ट्र-राज्य के रूप में नहीं है। भारत ने 2013 में संयुक्त राष्ट्र की घोषणा का समर्थन करते हुए औपचारिक रूप से अल्पसंख्यक अधिकार दिवस मनाना शुरू किया, यह दर्शाते हुए कि विकसित भारत का सपना बहुसंख्यक दबदबे पर नहीं, सह-अस्तित्व की साझेदारी पर टिका है।
लेकिन, इस उत्सव के बीच चुनौतियां भी कम नहीं। सामाजिक भेदभाव आज भी आवास, नौकरियों और सामुदायिक व्यवहार में कई अल्पसंख्यक परिवारों को हाशिये पर धकेलता है। शिक्षा और रोजगार तक पहुंच की कमी आर्थिक पिछड़ेपन में बदल जाती है और नीति निर्माण में सीमित भागीदारी राजनीतिक अल्पप्रतिनिधित्व में। कहीं-कहीं सांप्रदायिक तनाव और घृणा अपराध उनका सबसे बुनियादी मानवाधिकार लेते हैं।
भारत में अल्पसंख्यक अधिकार दिवस केवल प्रतीकात्मक आयोजन नहीं है। यह हाशिये पर खड़े समुदायों की आवाज को केंद्र में रखने की पहल है। यही वजह है कि यह दिन उन संवैधानिक प्रावधानों की याद दिलाता है, जो अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक और शैक्षिक संस्थान स्थापित करने व संचालित करने का अधिकार देते हैं। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग जैसे संस्थान 1992 से लगातार इन अधिकारों की वकालत करते रहे हैं, भले ही उनकी राह चुनौतियों से घिरी हो।
18 दिसंबर केवल यह प्रतिज्ञा है कि वही समाज प्रगतिशील कहलाता है जो कमजोर को आवाज दे, विभिन्नता को स्थान दे और राज्य की सुरक्षा सभी पर समान रूप से लागू करे। भारत की साझी पहचान तभी सुरक्षित होगी जब एक अल्पसंख्यक नागरिक भी बिना भय, बिना भेदभाव अपनी भाषा, अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपना सपना जी सके।
--आईएएनएस
पीएसके/जीकेटी