ब्रिटिश भारत की पहली ग्रेजुएट महिला, जिसने अपनी लेखनी से उठाई महिलाओं के हक में आवाज

ब्रिटिश भारत की पहली ग्रेजुएट महिला, जिसने अपनी लेखनी से उठाई महिलाओं के हक में आवाज

नई दिल्ली, 26 सितंबर (आईएएनएस)। भारत की धरती पर कई महान शख्सियतों ने जन्म लिया है। अलग-अलग क्षेत्रों में हर किसी ने अपना योगदान दिया। इन्हीं में से एक थीं बंगाली कवि, सामाजिक कार्यकर्ता और नारीवादी महिला कामिनी रॉय। उनका नाम ब्रिटिश भारत से लेकर स्वतंत्र भारत तक के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। वह देश की पहली ग्रेजुएट महिला थीं। उन्होंने न केवल खुद शिक्षा हासिल की, बल्कि देश में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए अपनी आवाज बुलंद की और लड़कियों को भी पढ़ने का हक दिलाया। उन्होंने महिलाओं को जागरूक करने के लिए कई कविताएं लिखीं।

कामिनी रॉय की पुण्यतिथि 27 सितंबर शुक्रवार को है। उनका जन्म 12 अक्टूबर 1864 को बंगाल के बसंदा गांव में हुआ था। रॉय एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखती थीं। ब्रिटिश काल में उनके भाई को कलकत्ता (अब कोलकाता) का मेयर चुना गया था और उनकी बहन नेपाल के शाही परिवार की डॉक्टर थीं।

बचपन से ही वह पढ़ाई लिखाई में काफी अच्छी थीं। उन्होंने साल 1883 में उन्होंने बेथ्यून कॉलेज में एडमिशन लिया था। वह ब्रिटिश भारत में कॉलेज जाने वाली पहली लड़कियों में से एक थीं। उन्होंने साल 1886 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के बेथ्यून कॉलेज से संस्कृत ऑनर्स में डिग्री हासिल की और देश के इतिहास में स्नातक करने वाली पहली महिला बन गईं।

कॉलेज के दिनों में वह अबला बोस से मिलीं, जो महिलाओं की शिक्षा के हक में आवाज उठाने के लिए जानी जाती थीं। अबला बोस के साथ उनकी दोस्ती ने महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के लिए उन्हें प्रेरित किया। इस दौरान उन्होंने लेख भी लिखने शुरू किए और अपनी कविताओं के माध्यम से महिलाओं के हक में आवाज उठाई।

कामिनी रॉय ने साल 1889 में छंदों का पहला संग्रह ‘आलो छैया’ और उसके बाद दो और किताबें लिखीं। हालांकि, उनकी शादी हो गई और वह कई साल तक लेखन से दूर रहीं, मगर उन्होंने महिलाओं के हक में लड़ना जारी रखा। कलकत्ता के एक बालिका विद्यालय में दिए भाषण में उन्होंने कहा था, “महिलाओं की शिक्षा का उद्देश्य उनके विकास में योगदान देना और उनकी क्षमता को पूरा करना है।“

साल 1909 में पति केदारनाथ रॉय की मौत के बाद वह बंग महिला समिति में शामिल हो गईं और उन्होंने खुद को समाज में योगदान के लिए समर्पित कर दिया। इस दौरान उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। उन पर कवि रवींद्रनाथ टैगोर का भी काफी प्रभाव पड़ा और उनसे प्रेरित होकर कामिनी ने ‘महश्वेता’, ‘पुंडरीक’, ‘पौराणिकी’, ‘दीप ओ धूप’, ‘निर्माल्या’, ‘माल्या ओ निर्माल्या’ और अशोक संगीत जैसी किताबें लिखीं।

वह जिस बंग महिला समिति का हिस्सा थीं, उन्हीं के प्रयासों की वजह से साल 1925 में हुए बंगाल विधान परिषद के चुनाव में महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला। इसके बाद बंगाली महिलाओं को साल 1926 के भारत में हुए आम चुनाव में वोट करने का अधिकार मिला। वह 1922 से 23 के बीच महिला श्रम जांच आयोग की सदस्य रहीं। उन्होंने 27 सितंबर 1933 को दुनिया को अलविदा कह दिया।

--आईएएनएस

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